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अष्टावक्र गीता-दोहे -9

*अष्टावक्र गीता*-9
अविनाशी है आत्मा,यही सत्य तुम जान।
बुद्धिमान नर जान यह,धरे न धन का ध्यान।।

हृदय वासना में रमे,जब मन में अज्ञान।
कहे सीप को रजत यह,भ्रम बस मन नादान।।

उर्मि-स्रोत जो सिंधु सम, मैं उद्गम संसार।
चले कहाँ तुम तज मुझे,दीन-हीन-मतिमार।।

शुचि-सुंदर-चैतन्य वह,आत्मा की पहचान।
कर न सकोगे जान यह,इन्द्रिय-सुख-अभिमान।।

सभी प्राणियों में स्वयं,स्वयं रहे संसार।
यह रहस्य मुनि जान रख,यदि ममत्व,बेकार।।
             ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                9919446372

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8 Comments

Shnaya

23-Feb-2024 12:52 AM

Nice

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Gunjan Kamal

22-Feb-2024 11:50 PM

👌🏻👏🏻

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Mohammed urooj khan

22-Feb-2024 12:06 PM

👌🏾👌🏾👌🏾

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